




~ संजय आचार्य वरुण
पता नहीं कि बीकानेर के भाग्य में रेल फाटकों की समस्या का समाधान लिखा हुआ है भी कि नहीं। आज से पचास- साठ साल पहले हमारे दादाजी और पिताजी रेलगाड़ी के आने से पहले बंद हुए फाटकों के नीचे से अपनी साइकिल को निकालकर अपनी कोटगेट यात्रा का शगुन पूरा करते थे। आज हम और हमारे बेटे- भतीजे तो अपनी बाइक को आडी पटक कर रेल फाटक के नीचे से भी नहीं निकाल सकते हैं। हमें तो आधा घण्टा तक फाटक के खुलने का इंतजार ही करना पड़ता है। फाटकों के नीचे- ऊपर से निकलने वाले सारे वाहन बदल गए, फाटकों के खुलने की प्रतीक्षा करने वाली पीढ़ियां बदल गई।
फाटकों के आसपास की दुकानों के रूप- स्वरूप बदल गए, उन दुकानों को संभालने वाले चेहरे बदल गए, फाटकों के पास जमीन पर बैठकर टोकरे से मनिहारी का सामान बेचने वाली ग्वालिनें दो- दो, तीन- तीन बार बदल गई लेकिन आजादी के बाद से अब तक जो नहीं बदली है, वो है रेल फाटकों की समस्या। बचपन से लेकर आज की प्रौढ़ अवस्था तक लाखों बार यह सुना और पढ़ा है कि ‘समस्या से पहले उसके समाधान का जन्म होता है’ लेकिन बीकानेर के रेल फाटकों के सन्दर्भ में देखा जाए तो यह वाक्य बिल्कुल आधारहीन नज़र आता है। कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता जो बीकानेर से सर्वाधिक बार प्रदेश सरकार में ताकतवर मंत्री रहे हैं, जब वे भी अपने पैंतालीस साल से अधिक के राजनीतिक जीवन में इन रेल फाटकों का कुछ उखाड़ नहीं सके तो बाकी के एक- दो बार विधायक बनने वालों से क्या उम्मीद रखी जाए ? हां, भाजपा के सांसद महोदय जो केन्द्र सरकार में मंत्री हैं और 2009 से लगातार बीकानेर से चुनकर दिल्ली भेजे जाते रहे हैं, वे अगर मजबूत इच्छाशक्ति के साथ इस दिशा में प्रयास करते तो संभवत: इस समस्या का कोई समाधान निकल आता। लेकिन सच्चाई ये है कि रेल फाटकों की समस्या नेताओं के लिए केवल चुनावी मुद्दे से अधिक कुछ नहीं है। हर चुनाव में सभी नेता इस समस्या के समाधान का वादा करते हैं और चुनाव जीतते ही अगले चुनाव तक के लिए इन रेल फाटकों को भूल जाते हैं।
ऐसा नहीं है कि जनता ने इस नासूर को मिटाने के लिए प्रयास नहीं किया, इस समस्या के निराकरण के लिए अनेक जन आन्दोलन हो चुके हैं। वरिष्ठ अधिवक्ता रामकृष्ण दास गुप्ता जैसे अनेक लोगों ने अथक संघर्ष किया है परन्तु ये फाटक तो अंगद का पांव निकले जो टस से मस तक नहीं हुए। बीकानेर के मोना सरदार डूडी और अशोक जोशी ‘सांचीहर’ जैसे ऊर्जावान कलाकारों की टीम ने न जाने कितनी बार रेल फाटकों की समस्या के निदान के लिए थर्मोकोल के मॉडल बना- बनाकर नेताओं और अधिकारियों को दिखा दिए लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात रहा। आज प्रदेश और केन्द्र दोनों जगह भाजपा की सरकारें हैं, स्थानीय सांसद मोदी जी के निकटतम मंत्री हैं, बीकानेर में नोखा को छोड़कर सभी विधानसभा क्षेत्रों में भाजपा के विधायक हैं। ऐसी स्थिति में भी अगर रेल फाटकों की समस्या का समाधान नहीं होता है तो इसे बीकानेर के दुर्भाग्य के अलावा क्या कहा जा सकता है। पता नहीं बीकानेर की कितनी पीढ़ियों को फाटकों के आगे खड़े रहकर रेल के निकल जाने का इंतजार करना पड़ेगा ? पता नहीं हमारे जीवन का ये पहाड़ कब हटेगा और कौन वो व्यक्ति होगा जो हमारा ‘दशरथ मांझी’ बनेगा।